कथा है कि जब राक्षसराज रावण ने अपनी पराक्रमी शक्ति का अभिमान करते हुए कैलाश पर्वत उठाने का संकल्प लिया, तो महादेव को उसकी अतिआत्मिकता रास नहीं आई। एकाधिक प्रयासों के बाद वह पर्वत को लंका ले जाने ही वाला था, तभी शिवजी ने एक अंगूठे के अवचूक स्पर्श से कैलाश को अपनी धर्ती पर स्थिर कर दिया। उस प्रचण्ड घटना में रावण का हाथ दब गया और वह कराह उठ पड़ा—“शंकर! शंकर!”—क्षमा याचना करते हुए वह प्रार्थना के स्वर में रच‑बस गया, जिसे कालांतर में ‘शिव ताण्डव स्तोत्र’ के नाम से जाना गया।
इस भक्ति-प्रलाप से अनन्त प्रसन्न हुए भोलेनाथ ने रावण को न केवल अजेय सोने की लंका का वरदान प्रदान किया, अपितु असीम समृद्धि, संपूर्ण ज्ञान, विज्ञान और अमरत्व की दीक्षा भी दी। कहते हैं कि शिव ताण्डव स्तोत्र के स्वरों में डूबते ही सम्पत्ति, वैभव और संतान-संपदा का वर मिलता है।
शिव तांडव स्तोत्रम् (shiv tandav stotram) - Ashutosh Rana / Shiv Tandava Stotram By Ravana Meaning in English / ಶಿವ ತಾಂಡವ ಸ್ತೋತ್ರಂ ಕನ್ನಡದಲ್ಲಿ
काव्य-रूप में अत्यंत अलंकृत यह स्तोत्र पंचचामर छन्द में रचित है। अनुप्रास, समास और लयात्मकता से युक्त इसकी अभिव्यक्ति संगीत-सदृश प्रवाह उत्पन्न करती है, जिससे भक्ति-रसंवेदन तीव्र होती है। सुंदर एवं जटिल भाषा‑शैली के कारण ‘शिव ताण्डव स्तोत्र’ शिवस्तोत्रों में विशिष्ट स्थान ग्रहण किए हुए है।
नीचे रामायण की भांति वर्णित श्रीरावणकृत “शिव ताण्डव स्तोत्र” के संपूर्ण १७ श्लोकों का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत है। प्रत्येक श्लोक के बाद उसका अनुवाद दिया गया है—
श्लोक 1
जटाटवी गलज्जलप्रवाह पावितस्थले गलेऽव लम्ब्यलम्बितां भुजंगतुंग मालिकाम्।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनाद वड्डमर्वयं चकारचण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् ॥१॥
अनुवाद:
हे शिव! आपकी जटाओं में वृक्ष-सा बहता जल पवित्र स्थल रचता है, और आपके कंठ से लटकी सांप-मण्डित मकर-मालाएँ विचरिये; जब आप भयङ्कर “डमड्डमड्डमड्डमन्निनाद” के साथ उग्र ताण्डव करते हो, तब हमें अपना कल्याणकर शिवत्व प्रदान करो।
श्लोक 2
जटाकटाहसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्धनि।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम ॥२॥
अनुवाद:
आपकी जटाएँ झरने-सी झिलमिल जल छलकाती हैं और लताओं-सी मचल-मचलकर आपके शिरोभूषण पर धारण है; आपका ललाटपट्ट ज्वलन्त अग्नि-सा प्रज्वलित है, और किशोरचंद्र-शोभा से मेरा हृदय प्रत्येक क्षण हर्षित होता है।
श्लोक 3
धराधरेंद्रनंदिनी विलासबन्धुबन्धुर स्फुरद्दिगंतसंतति प्रमोदमानमानसे।
कृपाकटाक्षधोरणी निरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्विगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि ॥३॥
अनुवाद:
पृथ्वी-समर्थक पर्वत-नंदिनी की लीलाएँ आपकी अनुग्रह-बद्धुता दर्शाती हैं, आपकी अपार दीप्ति आकाश-सी फैली है; जब आपकी करुणामयी दृष्टि विपत्तियों में भी स्थिर होती है, तब उससे हमारे हृदय में अद्भुत आनंद का संचार होता है।
श्लोक 4
जटाभुजंगपिंगल स्फुरत्फणामणि प्रभा कदम्बकुंकुमद्रव प्रलिप्तदिग्वधूमुखे।
मदांधसिंधुर रस्फुरत्वगुत्तरीय मेदुरे मनोविनोदमद्भुतं बिंभर्तुभूत भर्तरि ॥४॥
अनुवाद:
आपकी जटाओं में सर्पमणि-सी चमक, कदम्बकुंकुम की लाली और मदामृत-सिंधु का प्रवाह, सब मिलकर आपके मस्तक पर अद्भुत मनोरम दृश्य उत्पन्न करते हैं, हे भोलेश, मेरा मन प्रसन्न हो उठता है।
श्लोक 5
सहस्रलोचन प्रभृत्यशेषलेखशेखर प्रसूनधूलिधोरणी विधूसरां घ्रिपीठभूः।
भुजंगराजमालया निबद्धजाटजूटकः श्रियैचिरायजायतां चकोरबंधुशेखरः ॥५॥
अनुवाद:
सहस्र नेत्रों के मुकुट, शेष-शिरोलेखों की माला और पुष्प-धूलि की वर्षा से अलंकृत आपका शिखर तथा जटाजूटिका में बँधी भुजंग-राज-माला सब पर कोकिल-बंधु का मुकुट सदैव शोभित रहे।
श्लोक 6
ललाटचत्वरज्वलद्धनंजयस्फुलिंगभा निपीतपंचसायकं ननिलिंपनायकम्।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं महाकपालिसंपदे शिरोजटालमस्तुनः ॥६॥
अनुवाद:
आपके ललाटपट्ट की ज्वाला धनञ्जयस्फुलिंग-सी दमकती है, पाँच त्रिशूल ललाट पर धारित हैं; अमृत-किरण-लेख से सुसज्जित आपका मुकुट, महा-कपाली की संपदा-से शोभित शिरो-ज़टाल-मंडल पर विराजमान हो।
श्लोक 7
करालभालपट्टिका धगद्धगद्धगज्ज्वलद्धनंजया धरीकृतप्रचंडपंचसायके।
धराधरेंद्रनंदिनी कुचाग्रचित्रपत्र कप्रकल्पनैकशिल्पिनी त्रिलोचनेरतिर्मम ॥७॥
अनुवाद:
आपके कराल-भालपट्टिका से धधकती ज्वाला, धनञ्जय की भांति त्रिशूल धारित; पृथ्वी-पुत्रिनी(called धराधरेंद्रनंदिनी) आपकी कलाप्रवण कल्पना से रत है—हे त्रिलोचन, ये सब मम अति प्रिय हैं।
श्लोक 8
नवीनमेघमंडली निरुद्धदुर्धरस्फुरत्कुहुनिशीथनीतमः प्रबद्धबद्धकन्धरः।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिंधुरः कलानिधानबंधुरः श्रियांगद्दुरंधरः ॥८॥
अनुवाद:
नवीन मेघमंडल-सी मृदु, दुर्धर-रोशनी से युक्त आपका प्रतिबद्ध कन्धार; झरने-सा प्रवाहित निलिम्प-विहार, कला-भण्डार की माला—हे धूरंधर, ये सभी मेरा मनोविनोद बढ़ाएं।
श्लोक 9
प्रफुल्लनीलपंकज प्रपंचकालिमप्रभा वलम्बिकंठकंधलीरुचि प्रबंधकंधरम्।
स्मरच्छिदंपुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥९॥
अनुवाद:
नील-पद्म-सी हँसमुख, तमकाल-प्रभा, अवलम्बित करो-ठंडी कंठरचना; पुर, भव, मख, गज, अंधक, तमंतक—ये जो भी विध्वंस करनेवाले रूप हैं, उन सब रूपों के शिशेदन करता हूँ मैं।
श्लोक 10
अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्।
स्मरांतकं पुरातकं भवांतकं मखांतकं गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥१०॥
अनुवाद:
श्लाघार्ह कलाक-दम्बमंजरी-सी महातिथि, रस-प्रवाह-मधुरता-विक्रिया; वे पुरांतक, भवांतक, मखांतक, गजांतक, अंधकांतक, तमंतकांतक—सभी का विनाशकर्ता रूप मैं भजता हूँ।
श्लोक 11
जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजंगमस्फुरद्धगद्धगद्विनिर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्।
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदंगतुंगमंगलध्वनिक्रमप्रवर्तितः प्रचण्डताण्डवः शिवः ॥११॥
अनुवाद:
आपके डमरुओं की धीमि धीमि ध्वनि, मृदंग-तूंग कल-क्रम, जब आपके भयंकर शिरः कम्प से निकलकर “धगद्धगद्धगज्ज्वल” की गर्जना करे, तब प्रारंभ हो आपका प्रचण्ड ताण्डव, हे शिव।
श्लोक 12
दृषद्विचित्रतल्पयर्भुजंगमौक्तिकस्रजो गरिष्ठरत्नलोष्टयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः।
तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समप्रवर्तयन् मनः कदा सदाशिवं भजे ॥१२॥
अनुवाद:
सर्प-जटाजाल, मौक्तिक-शृंगार, रत्न-ओष्ठ अलंकृत, मित्र-विपक्ष दोनों में रति फैलाता; त्रिनयन कमल-दृष्टि, लोक-इंद्रों सहित विचरता—ऐसे शिव को मन मैं कब न भजूँ, हे सदाशिव!
श्लोक 13
कदा निलिम्प-निर्झरी निकुंज-कोटरे वसन् विमुक्त-दुर्मतिः सदाशिरःस्थ-मंजलिं वहन्।
विमुक्त-लोल-लोचनो ललाम-भाललग्नकः शिवेति मंत्र-मुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ॥१३॥
अनुवाद:
कभी जब वे निलिम्प-निर्झरी-सी जटाओं में विकराल वास करें, विमुक्त-दुर्मति मन में लय बनाकर, मुक्त-लोचन मृदुल, ललाट-भाल मंडल पर “शिवेति” मंत्र उच्चारित करते हुए, तब मैं अवश्य सुखी हो जाऊँगा।
श्लोक 14
निलिम्प नाथ नागरी कदम्ब मौलमल्लिका-निगुम्फनिर्भक्षरन्मधूष्णिकामनोहरः।
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनीं महानिशं परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥१४॥
अनुवाद:
मधुगंधमय नगर-पशुपति, कदम्ब-मल्लिका-सी शोभित मल्लिका, मधु-तापिनी कामोहरिणी; हे शिव, हमारे मनोविनोद को रातदिन आनंदित करे, और आपका शरण-स्थान सर्वोच्च हो।
श्लोक 15
प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना।
विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिक ध्वनिḥ शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम् ॥१५॥
अनुवाद:
भयंकर अग्नि-प्रभा, शुभ प्रचार-सी लहर, अष्ट सिद्धि-कामिनी, जनजीवन-उत्प्रेरित कथन; विमुक्त वाम-लोचन, विवाहकाल-सी ध्वनि-निर्गमिनी, “शिवेति” मंत्र-भूषित, जगत्-जय की कारण हों।
श्लोक 16
इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं पठन्स्मरन् ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथागतिं विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम् ॥१६॥
अनुवाद:
जो नित्यमुक्त-महोत्तम इस स्तोत्र का पठन करता है, स्मरण कर “ब्रूवन्नरो विशुद्धम्” कहता है, वह हरि-गुरु में शीघ्र सुभक्ति पाएगा और अव्यावस्थित भटकन से रक्षित होकर सुशङ्कर-चिंतन में मग्न रहेगा।
श्लोक 17
पूजाऽवसानसमये दशवक्त्रगीतं यः शम्भूपूजनपरं पठति प्रदोषे।
तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां लक्ष्मिं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥१७॥
अनुवाद:
जो पूजन-समाप्ति पर दशवक्त्र-गीत सहित प्रदोष-समये शम्भु-पूजन सम्पन्न करे, उसे शम्भु सदैव रथ, गजेंद्र, तुरंग सहित लक्ष्मी-सुमुखी फल-संपन्न कर दें।
ॐ तत् सत्